Skip to main content

कर्नाटक विधानसभा का संकट


कर्नाटक विधानसभा का संकट...

किसको पता था कि इतिहास इतनी जल्दी दोहराया जाएगा। 2018 में जब कर्नाटक में विधानसभा चुनाव हुए तो बीजेपी 104 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी और राज्यपाल वजूभाईवाला ने उसे ही सरकार बनाने का आमंत्रण दिया। पर कांग्रेस के 78 और टीडीएस के 37 विधायकों के गठबंधन ने राज्यपाल को सरकार बनाने के लिए यह कहते हुए दावा पेश किया कि बहुमत हमारे पास है। और राज्यपाल द्वारा उन्हें न आमंत्रित करने पर इन्होंने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया और कोर्ट के आदेश पर येदुरप्पा सरकार को 15 दिन के भीतर विश्वास हासिल करना था जिसमे वो विफल रहे और सरकार गिर गई। फलस्वरूप एच डी कुमारस्वामी की अगुवाई में कांग्रेस-टीडीएस की गठबंधन  की सरकार बनी।

अभी 14 महीने ही बीते हैं इस सरकार को और कांग्रेस के पहले 11 और बाद में 4 बागी विधयकों ने विधानसभा अध्यक्ष को यह कहते हुए अपना त्यागपत्र सौंप दिया उनको इस सरकार की जनता के प्रति मंशा स्पष्ठ नही लगती। वे सब जाकर मुंबई के एक रिसोर्ट में शरण लिए हुए हैं। लेकिन अभी तक कर्नाटक विधानसभा के अध्यक्ष ने उनका त्यागपत्र स्वीकार नही किया है। इससे साफ जाहिर होता है कि अध्यक्ष महोदय इस सरकार को बचाना चाहते हैं। विपक्ष द्वारा लगतार यह आरोप लगाने पर की कांग्रेस-टीडीएस सरकार अल्पमत में आ गई है फलस्वरूप, इस सरकार को विश्वास प्रस्ताव लाना पड़ा। और बागी विधायकों को सदन में उपस्थित कराने के लिए विधानसभा अध्यक्ष ने 'ह्विप' जारी कर दिया। उसके परिणाम स्वरूप भी बागी विधायक सदन में अभी तक नही उपस्थित हुए है। विधानसभा अध्यक्ष द्वारा बागी विधायकों का त्यागपत्र न स्वीकार किये जाने पर बागी विधायक सुप्रीम कोर्ट चले गए और 17 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने भी अपना फैसला सुनाते हुए ये कहा है कि विधानसभा अध्यक्ष को बागी विधायकों के त्यागपत्र को स्वीकार करने को लेकर कोर्ट विधानसभा अध्यक्ष को आदेश नही दे सकती। वास्तव में हमारे संविधान में भी इसको लेकर कोई समयसीमा नही तय की गई है कि लोकसभा या विधानसभा अध्यक्ष कितने समयसीमा के भीतर सदन के सदस्यों का त्यागपत्र स्वीकार करेगा। इस घटना से उहापोह की स्थिति विद्यमान हो गई है।

यह घटना कई प्रश्न उठाती है। क्या दल बदल कानून का सही उपयोग किया गया? क्या विधानसभा अध्यक्ष द्वारा इतने लंबे समय से बागी विधायकों का त्यागपत्र स्वीकार न करना लोकतत्रं की शुचिता पर प्रश्नचिन्ह अंकित नही करता है? अगर सरकारों को गिराने और बनाने के लिए 'रेसोर्ट पालन व्यवस्था'  ऐसे ही अपनाया जाएगा तो लोकतत्रं की नैतिकता पर क्या असर पड़ सकता है इसका अनुमान कठिन है? यह घटना एक हवा के रूप के उभरी है जो आने वाले दिनों में आधी का रूप ले सकती हैं। अगर लोकतत्रं की शुचिता और नैतिकता को ध्यान में नही रखा गया तो आये दिन ऐसे ही सरकारें गिरती और बनती रहेंगी। इसलिए इनको आपस में बैलेन्स बनाकर चलना बहुत उपयोगी है।

Comments