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सोनभद्र घटना से सबक लेने की जरूरत :- भूमि सुधार कानूनों में अब भी सुधार की आवश्यकता।

सोनभद्र घटना से सबक लेने की जरूरत :- भूमि सुधार कानूनों में अब भी सुधार की आवश्यकता।

पिछले दिनों सोनभद्र में हुए नरसंहार को देखकर सरकार को सबक ले लेना चाहिए और प्रशासनिक व्यवस्था को सुढृण करने के साथ-साथ भूमि सुधार कानूनों में सुधार करने की महती आवश्यकता है। क्योंकि जमीन हड़पने के सम्बन्ध में यह पहला अमानवीय कृत्य नही है अक्सर जमीन से सम्बंधित विवाद होते रहते है और उसके मालिकाना हक को लेकर आए दिन हिंसा होती रहती है। हमारी अदालतों में भी लंबित पड़े वादों में लगभग एक तिहाई हिस्सा भूमि और कृषि मामलों से सम्बंधित है। इसलिए सरकार को कोई ऐसा कदम उठाना चाहिए जिससे बिना हिंसा के जमीन से सम्बंधित मामले निपटाए जा सके।

सोनभद्र के घोरावल तहसील के उम्भा गांव में आदिवासियों के साथ हुई हिंसा भी भूमाफियों और नौकरशाहों की करतूतों का ही परिणाम थी। मुख्य आरोपी यगदत्त जो कि प्रधान है, ने चकबन्दी अधिकारियों से साठगांठ करके वो जमीन हड़पने की कोशिश की थी। जांच में पता चला है कि एक स्थानीय भूमाफिया के कहने पर एक आईएएस अधिकारी ने लगभग 600 एकड़ जमीन की हेरफेर की थी और जिस जमीन के लिए ये घटना घटित हुई है वो भी किसी आईएएस अधिकारी के नाम ही थी जिसने यगदत्त को बेची थी। कब्जा करने की कोशिश में 10 आदिवासी किसानों की जान चली गई। जो वीडियो वायरल हुआ है उसको देखकर हृदय पसीज उठा। बेचारे निहत्थे आदिवासियों पर इस प्रकार की क्रूरता अमानवीय व अक्षम्य है।

इस घटना से सबक लेते हुए सरकार को भूमि सुधार कानूनों में व्याप्त कमियों को समाप्त करना ही चाहिए। जब देश आजाद हुवा था तब लगभग 65% किसानों के पास जमीन नही थी या 1 एकड़ से भी कम थी। इतने भूमि सुधार कानूनों के लागू होने के बाद भी स्थिति यह है है कि आज भी लगभग 4 मिलियन किसानों के पास जमीन नही है। आजादी से पहले जमीदारी, रैयतवाड़ी व महलवाड़ी व्यवस्थाओं के द्वारा कृषि की जाती थी और इन्ही व्यवस्थाओं के द्वारा जोतों पर स्वामित्व प्रदान किया जाता था। देश आज़ाद होने पर सरकार ने तय किया कि की भूमिहीन कृषकों को भूमि प्रदान करने के उद्देश्य से भूमि सुधार किया जाएगा ताकि विचौलियों की समाप्ति की जा सके व काश्तकारी सुधार करके आवश्यक मंद लोगो को कृषि हेतु जमीन दिया जा सके। क्योंकि भूमि राज्य सरकार का विषय था इसलिए केंद्र के निर्देशन में जमीदारी उन्मूलन हेतु 1947 में उत्तर प्रदेश में जी वी पंत की अध्यक्षता में उत्तर प्रदेश ज़मीदारी उन्मूलन समिति बनाई गई। इसकी रिपोर्ट का सहारा लेकर देश के अन्य राज्यों ने भी अपने ज़मीदारी उन्मूलन कानून बनाये। जिसमें जमीदारी उन्मूलन कानून, 1950 व भूमिसुधार कानून, 1951 आदि बनाये गए। परन्तु इसमें भी कई कमियां थी। एक व्यक्ति कितनी जमीन रख सकता है इसका स्पष्ट नियमन नही था। जमीन के भूस्वामित्व पर व्यक्ति को इकाई माना गया था न कि परिवार को जिससे जमीदार अपनी जमीन अपने बच्चो, पत्नियों व नौकरों में बांटकर जमीन बचाने में कामयाब हुए। 1961 में ज़मीदारी कानून के द्वारा भू- हदबंदी कानून सभी राज्यों में लागू किया गया ताकि अधिक से अधिक काश्तकारों को अधिग्रहित भूमि दी जा सके व ज़मीदारी उन्मूलन कानून में कमियों को दूर करने के उद्देश्य से जब व्यक्ति के स्थान पर परिवार को इकाई मानकर कानून लाया गया तब भी जमीदार अपने रिश्तेदारों के नाम जमीन करके अपनी जमीन बचाने में कामयाब हुए। व जब भूमि की सीमा भी तय कर दी गई कि कोई भी व्यक्ति 10 एकड़ से अधिक भूमि नही रख सकता तो बड़े भूस्वामियों ने सहकारी कृषि को आधार बनाकर 10 एकड़ से अधिक वाली सारी जमीनों पर सहकारी कृषि कराने के उद्देश्य से अपनी जमीन बचाने में कामयाब रहे।इस प्रकार सरकार तमाम कोशिशों के बावजूद बड़े भूस्वामी अभी तक अपनी भूमि बचाने में कामयाब है।


यद्द्यपि सरकार ने जमीदारी उन्मूलन कानून के द्वारा, जोतों की चकबन्दी द्वारा, जमीन के पुनर्वितरण द्वारा, भुअभिलेखों को अद्यतन करके, बिचौलियों की समाप्ति करके व काश्तकारी सुधार करके भूसुधार करने के बेहतरीन प्रयास किये है फिर भी उनमें तमाम खामियां विद्यमान हैं। 2011 कि कृषि जनगणना व 2011 की सामाजिक-आर्थिक जनगणना के अनुसार भारत मे एक बड़े किसान पास 'सीमांत' किसान की तुलना में 45 गुना अधिक भूमि है और लगभग 56.4% ग्रामीण परिवारों के पास कोई जमीन ही नही है। इसलिए सरकार को भूमि सुधार कानूनों में संशोधन करके ऐसी व्यवस्था स्थापित करना चाहिए ताकि हमारे संविधान में वर्णित आर्थिक समानता की संकल्पना को पूर्ण किया जा सके।

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